Menu Close

फिर उड़ा वो मच्छर (सरहदों के पार)

याद है मुझे वो दिन, जब मैं एक मच्छर से भिड़ा था
दर्जनों थे वो और मैं अकेला लड़ा था
रात भर जगाया था मुझको ज़ालिमों ने,
कोई शस्त्र मेरे पास ना था, फिर भी महायुध कड़ा था

रात कब बीती, ना पूछो यारों,
सुबहे होते तक मेरी पुस्तक और मेरा बिस्तर शहीदों से भरा था
बस एक ही था जिसे मोक्ष ना मिला था,
बाकी हर कोई स्वर्गलोक के द्वार पर खड़ा था

रातें बीती, दिन बीते, और बीते सालों साल,
मैं भूला उस मच्छर को और आया सरहदों पार
उधर पीढ़ियां गुज़री कई हज़ार, पर बुनती रही वो जाल,
इंतकाम की आग थी जलती, वे भूल ना पाए थे हार

फिर आया इक दिन, जब मैं लौटा वापस देश
इंतज़ार सब करते थे, पर बदल लिया था भेष
रखा पाँव धरती पर मैंने, देख वो सब चिल्लाए
मारो काटो ख़ून बहादो, इस बार ना बचने पाए
अब कौन बताये इन मासूमों को, मैं अपने देश था आया
जहाँ अभिनंदन से वीर हैं बस्ते, कोई आँख उठा ना पाया

खैर! घर पहुँचा मैं, थी तय्यारी, करेंगे सर्जिकल स्ट्राइक
वक़्त था तय, कुछ रात में गयारह, बस बंद हो कमरे की लाइट
पर कहते हैं ना, बच्चे पे विपदा एक माँ लेती है जान
श्याम हुई और ओडोमॉस से मम्मी ने सबका किआ काम तमाम
मैंने ना सोचा कितने थे या कितनो ने प्राण गवाए
बढ़िया से पकवान बने थे, मैंने बहुत किए एंजोय

असमंजस में सब थे अब, जो बच निकले औऱ भागे
युध अभी आरम्भ हुआ ना, कोई रहा पीछे ना आगे
फिर भी कुछ ऐसे भी थे, जो मानें नहीं थे हार
सुना है कहते लोगों को, वह आएंगे सरहदों पार

Related Posts

Leave a Reply

Social media & sharing icons powered by UltimatelySocial