गूंज रहे हैं अब तक जिसके, मेरे कानो में स्वर
भूल सका नही जिसको मैं, था वो एक उड़ता हुआ मच्छर
बैठा था कोने में छिपकर, देख रहा था इधर उधर,
बंद करी जैसे ही बत्ती, आ पहुँचा मेरे बिसतर पर
काट-काट कर मुझे रुलाया, उस मच्छर ने मुझे उठाया,
गुस्से में आकर मैनें भी ज़ोर से अपना हाथ घुमाया,
गिरा दूर जाकर वो मच्छर.
नींद उड़ादी थी जो उसने, सोचा बैठूं अब मैं पङ़ने,
जली जो बत्ती, झट्से उड़कर, पहुँच गया कोने में छिपने.
बैठा मैं कुरसी पर पङ़ने, दोस्त यार सब इंतेज़ार में (मच्छर के दोस्त यार)
सबने मूझको बहुत सताया, पारा मेरा बहुत चड़ाया
लड़ते हुए साहस दिखलाया, सबको मैंने मार भगाया.
लड़ते-पड़ते नींद आ गई, उठा सुब्ह कुरसी पर था मैं,
खून पड़ा था इधर उधर, मच्छर चिप्के थे पन्नों पर,
देखकर सब कुछ सोचा मैंने, सो पाऊँगा अब तो रात में.
पर देखा जो इक कोने में, मुसकुरा रहा था अपनी जीत पर,
कुछ घायल कुछ हुए शहीद, पर वो बैठा था वहीं दुब्बक कर,
सोच रहा था मन में शायद, ली है एक मच्छर से टक्कर,
अब इंतेकाम से रहना बचकर, अब इंतेकाम से रहना बचकर…